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मन्ना डे के जाने के बाद संगीत के सुनहरे दौर के महान गायकों की आख़िरी कड़ी भी आज बिखर गयी | प्रबोध चन्द्र डे उर्फ मन्ना डे का जन्म एक मई 1920 को कोलकाता में हुआ था।
संशाधन होते हुए भी उसका उपयोग न होना , इसका ज्वलंत उदाहरण थे "मन्ना डे" |संगीत के सुनहरे दौर में भी नायाब गायक का समुचित इस्तेमाल न होना एक त्रासदी से कम नहीं | फिर भी जो गाने इन्हें मिले वो अमर हो गए |जिस गाने को बड़े से बड़ा गायक छूने की हिम्मत नहीं करते थे , उन गानों के साथ समुचित न्याय मन्ना डे ने किया |हालांकि उनके ऊपर शास्त्रीय संगीत के गायक का ठप्पा लगा दिया गया था ,लेकिन जब भी उन्हें अलग तरह के गाने मिले उन्होंने चार चाँद लगा दिए |उन्होंने हरिवंश राय बच्चन की मशहूर कृति ‘मधुशाला’ को भी आवाज दी|इसके अलावा 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई', 'लागा चुनरी में दाग़', 'आयो कहां से घनश्याम' 'सुर न सजे', 'कौन आया मेरे मन के द्वारे', 'ऐ मेरी जोहर-ए-जबीं', 'ये रात भीगी-भीगी', 'ठहर जरा ओ जाने वाले', 'बाबू समझो इशारे', 'कसमे वादे प्यार वफा' जैसे गीत भी काफी पंसद किए गए| फिल्मों में उल्लेखनीय योगदान के लिए वर्ष 1971 में पद्मश्री पुरस्कार और वर्ष 2005 में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा वह वर्ष 1969 में फिल्म 'मेरे हुजूर' के लिये सर्वश्रेष्ठ पार्श्र्वगायक, 1971 में बंगला फिल्म 'निशि पदमा' के लिये सर्वश्रेष्ठ पार्श्र्वगायक और 1970 में प्रदर्शित फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के लिए फिल्मफेयर के सर्वश्रेष्ठ पार्श्र्वगायक पुरस्कार से सम्मानित किये गये। वर्ष 2007 में उन्हें फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने न केवल रागों पर आधारित गीत गाए बल्कि कव्वाली और तेज संगीत वाले गीतों को भी अपनी आवाज से सजाया।मन्ना डे की आवाज कई पीढ़ियों की पसंदीदा रही है और आने वाली पीढ़ियों तक रहेगी |
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गठरी पर अजय कुमार
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मन्ना डे के जाने के बाद संगीत के सुनहरे दौर के महान गायकों की आख़िरी कड़ी भी आज बिखर गयी | प्रबोध चन्द्र डे उर्फ मन्ना डे का जन्म एक मई 1920 को कोलकाता में हुआ था।
संशाधन होते हुए भी उसका उपयोग न होना , इसका ज्वलंत उदाहरण थे "मन्ना डे" |संगीत के सुनहरे दौर में भी नायाब गायक का समुचित इस्तेमाल न होना एक त्रासदी से कम नहीं | फिर भी जो गाने इन्हें मिले वो अमर हो गए |जिस गाने को बड़े से बड़ा गायक छूने की हिम्मत नहीं करते थे , उन गानों के साथ समुचित न्याय मन्ना डे ने किया |हालांकि उनके ऊपर शास्त्रीय संगीत के गायक का ठप्पा लगा दिया गया था ,लेकिन जब भी उन्हें अलग तरह के गाने मिले उन्होंने चार चाँद लगा दिए |उन्होंने हरिवंश राय बच्चन की मशहूर कृति ‘मधुशाला’ को भी आवाज दी|इसके अलावा 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई', 'लागा चुनरी में दाग़', 'आयो कहां से घनश्याम' 'सुर न सजे', 'कौन आया मेरे मन के द्वारे', 'ऐ मेरी जोहर-ए-जबीं', 'ये रात भीगी-भीगी', 'ठहर जरा ओ जाने वाले', 'बाबू समझो इशारे', 'कसमे वादे प्यार वफा' जैसे गीत भी काफी पंसद किए गए| फिल्मों में उल्लेखनीय योगदान के लिए वर्ष 1971 में पद्मश्री पुरस्कार और वर्ष 2005 में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा वह वर्ष 1969 में फिल्म 'मेरे हुजूर' के लिये सर्वश्रेष्ठ पार्श्र्वगायक, 1971 में बंगला फिल्म 'निशि पदमा' के लिये सर्वश्रेष्ठ पार्श्र्वगायक और 1970 में प्रदर्शित फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के लिए फिल्मफेयर के सर्वश्रेष्ठ पार्श्र्वगायक पुरस्कार से सम्मानित किये गये। वर्ष 2007 में उन्हें फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने न केवल रागों पर आधारित गीत गाए बल्कि कव्वाली और तेज संगीत वाले गीतों को भी अपनी आवाज से सजाया।मन्ना डे की आवाज कई पीढ़ियों की पसंदीदा रही है और आने वाली पीढ़ियों तक रहेगी |
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गठरी पर अजय कुमार
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3 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन २४ अक्तूबर का दिन और ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सुन्दर ,रोचक और सराहनीय। कभी इधर भी पधारें
लेखन भाने पर अनुशरण या सन्देश से अभिभूत करें।
सादर मदन
एक अलग शास्त्रीय आवाज़ के मालिक जो हमेशा याद रहेंगे ... नमन है मेरा ...
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