Sunday, January 23, 2011

कड़ाके की सर्दी और गाँव का हीटर (अजय की गठरी)

                                                       कउड़ा-कथा    
        
सर्दी जब अपने शबाब पर होती है तो अच्छे अच्छे फैशन परस्त लोग पूरे कपड़े में नजर आते हैं । इसी समय मैं सिद्धार्थनगर गया था । बस्ती से सिद्धार्थनगर बस से यात्रा के दौरान आसपास कुहरा छाया था ।



                                             ड्राइवर साब ,जरा संभल के

सुबह का ये सफर बड़ा अच्छा था , मुंह खोलने पर भाप का निकलना बचपन का खेल याद आ गया । हम अपने उंगलियों में स्टाइल से कागज का सिगरेट बना कर कश लगाते और मुंह से भाप निकालते ।
धूप में छत पर लेटना ,तेल और बुकवा (सरसो का पेस्ट सरसो के तेल में मिला हुआ) की मालिश ,सरसो , बथुवा ,चना और मटर का साग सब याद आया ।
सुबह शाम गांव में आग तापने की व्यवस्था होती है ,जिसे कउड़ा या अलाव कहते हैं । कउड़ा को गांव का हीटर कहना अधिक उचित है ।

                                               मजा तो आ रहा है

मिट्टी का बड़ा और गहरा सा पात्र जिसे बोरसी कहते हैं ,सभी घरों में होता है । इसी बोरसी में लकड़ी , उपला (कंडा) ,धान की भूसी आदि जलाकर शरीर को गर्मी पहुंचाई जाती है ,जिससे कि जाड़ा, जोड़ों में न घुस पाये ।


                                               आग दहक चुकी है

इसी आग में नया आलू भूनकर खाते रहिये और दुनियां भर की बातें करते रहिये । इस कउड़े का एक बड़ा और प्रचलित रूप भी है । आमतौर पर लोगों के घर के बाहर काफी जगह होती है जिसे दुआरा कहते हैं । इसी दुआरे पर एक छोटा सा गड्ढा खोदा जाता है , इसमें धान की भूसी,कंडा आदि से भर दिया जाता है , फिर उसके ऊपर किसी पेंड़ की मोटी जड़ का टुकड़ा जला दिया जाता है । ये जड़ बहुत देर तक जलता रहता है और लोगों की बातें भी अनवरत चलता रहता है ।इसमें तर्क-वितर्क ,सुख-दुख ,
एक दूसरे की खिंचाई और देश दुनिया की तमाम बातें होती हैं ।
कौन कहता है -मर्द चुगली नहीं करते ,कभी कउड़ा ताप कर तो देखिये ।




                                          ये अम्मा-बाबूजी का चुपके से खींचा गया चित्र

तो ये था गांव के हीटर की कहानी अर्थात कउड़ा-कथा ।
(गठरी पर अजय कुमार )

Saturday, January 8, 2011

खुदा आकर के खुद पूंछे ???? (अजय की गठरी )

हांड़ तोड़ सर्दी------

                                                    कड़क सर्दी के मौसम में,

                                                    बदन अपना कंपा इतना ,




                                         खुदा आकर के ख़ुद पूंछे,
                                         रजाई- गद्दा भेजूं क्या ?

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सर्दी मुबारक
अजय कुमार (गठरी पर )

नोट- पूर्व में ’सस्ते शेर ’ब्लाग पर प्रकाशित हो चुका है , फिर से झेलिये ।

Monday, January 3, 2011

सूचना एवं संचार तकनीक से महरूम रेलवे ??(अजय की गठरी)

सबसे पहले तो आप सभी को नये वर्ष की शुभकामनायें । अभी कुछ दिनों के लिये लखनऊ और सिद्धार्थनगर गया था ,कल शाम को लौटा हूं । गुर्जर आन्दोलन की क्रिपा से हमारी ट्रेन (अवध एक्सप्रेस) सिर्फ ३२ घंटा लेट हुई ।
अब आते हैं असली मुद्दे पर । संचार क्रांति के इस दौर में भी रेलवे अभी भी पूर्ण सूचना देने में बेबस और लाचार दिखने की कोशिश करता है। जरा निम्न बातों पर भी गौर करें-
१-ट्रेन लेट होने की जानकारी टुकड़ों में दी जाती है
२-ट्रेन किस स्टेशन पर है ,वहां क्यों रुकी है नहीं बताया जाता
३-ट्रेन अपने मूल स्टेशन से चल चुकी है या नहीं

 इन बातों के अलावा सेवा की कमी तो हद से बढ़कर है -
१-जनरल के असंख्य टिकट बेचते हैं
२-जनरल के यात्री पैसा देकर टिकट लेते हैं ,फिर पुलिस तथा कुली को पैसा देकर सीट का जुगाड़ करते हैं ,कभी कभी डंडा भी खाते हैं
३-एसी के यात्री पैसा ज्यादा देते हैं लेकिन कोई अतिरिक्त सुविधा नहीं, यदि प्लेन कैंसिल अथवा बहुत लेट हो तो संबंधित एयरलाइंस उनका ख्याल रखने की पूरी कोशिश करते हैं ,रेलवे में ऐसा नहीं है ।
३-हम एसी वेटिंग रूम में थे ,लेकिन उसका टायलेट सार्वजनिक था ,कोई पूछताछ नहीं ।

अब ट्रेन के अंदर की बात -
१-ट्रेन के स्टाफ को ही नहीं पता था कि परिवर्तित रूट क्या है ,अगला स्टेशन कौन सा है ???
२-ट्रेन अचानक क्यों रुकी है
३-क्या ट्रेन में उद्घोषणा नही की जानी चाहिये

और अंत मे मजेदार बात यह है कि रेलवे को तो कुछ नहीं पता था ,लेकिन बहुत से यात्रियों को इनमें से ज्यादातर जानकारी अपने मोबाइल के माध्यम से पता थीं ।
एक बार फिर से आप सब को नये वर्ष में स्वस्थ और सुंदर जीवन की मंगलकामनायें ।
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अजय कुमार
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