कउड़ा-कथा
सर्दी जब अपने शबाब पर होती है तो अच्छे अच्छे फैशन परस्त लोग पूरे कपड़े में नजर आते हैं । इसी समय मैं सिद्धार्थनगर गया था । बस्ती से सिद्धार्थनगर बस से यात्रा के दौरान आसपास कुहरा छाया था ।
ड्राइवर साब ,जरा संभल के
सुबह का ये सफर बड़ा अच्छा था , मुंह खोलने पर भाप का निकलना बचपन का खेल याद आ गया । हम अपने उंगलियों में स्टाइल से कागज का सिगरेट बना कर कश लगाते और मुंह से भाप निकालते ।
धूप में छत पर लेटना ,तेल और बुकवा (सरसो का पेस्ट सरसो के तेल में मिला हुआ) की मालिश ,सरसो , बथुवा ,चना और मटर का साग सब याद आया ।
सुबह शाम गांव में आग तापने की व्यवस्था होती है ,जिसे कउड़ा या अलाव कहते हैं । कउड़ा को गांव का हीटर कहना अधिक उचित है ।
मजा तो आ रहा है
मिट्टी का बड़ा और गहरा सा पात्र जिसे बोरसी कहते हैं ,सभी घरों में होता है । इसी बोरसी में लकड़ी , उपला (कंडा) ,धान की भूसी आदि जलाकर शरीर को गर्मी पहुंचाई जाती है ,जिससे कि जाड़ा, जोड़ों में न घुस पाये ।
आग दहक चुकी है
इसी आग में नया आलू भूनकर खाते रहिये और दुनियां भर की बातें करते रहिये । इस कउड़े का एक बड़ा और प्रचलित रूप भी है । आमतौर पर लोगों के घर के बाहर काफी जगह होती है जिसे दुआरा कहते हैं । इसी दुआरे पर एक छोटा सा गड्ढा खोदा जाता है , इसमें धान की भूसी,कंडा आदि से भर दिया जाता है , फिर उसके ऊपर किसी पेंड़ की मोटी जड़ का टुकड़ा जला दिया जाता है । ये जड़ बहुत देर तक जलता रहता है और लोगों की बातें भी अनवरत चलता रहता है ।इसमें तर्क-वितर्क ,सुख-दुख ,
एक दूसरे की खिंचाई और देश दुनिया की तमाम बातें होती हैं ।
कौन कहता है -मर्द चुगली नहीं करते ,कभी कउड़ा ताप कर तो देखिये ।
ये अम्मा-बाबूजी का चुपके से खींचा गया चित्र
तो ये था गांव के हीटर की कहानी अर्थात कउड़ा-कथा ।
(गठरी पर अजय कुमार )
सर्दी जब अपने शबाब पर होती है तो अच्छे अच्छे फैशन परस्त लोग पूरे कपड़े में नजर आते हैं । इसी समय मैं सिद्धार्थनगर गया था । बस्ती से सिद्धार्थनगर बस से यात्रा के दौरान आसपास कुहरा छाया था ।
ड्राइवर साब ,जरा संभल के
सुबह का ये सफर बड़ा अच्छा था , मुंह खोलने पर भाप का निकलना बचपन का खेल याद आ गया । हम अपने उंगलियों में स्टाइल से कागज का सिगरेट बना कर कश लगाते और मुंह से भाप निकालते ।
धूप में छत पर लेटना ,तेल और बुकवा (सरसो का पेस्ट सरसो के तेल में मिला हुआ) की मालिश ,सरसो , बथुवा ,चना और मटर का साग सब याद आया ।
सुबह शाम गांव में आग तापने की व्यवस्था होती है ,जिसे कउड़ा या अलाव कहते हैं । कउड़ा को गांव का हीटर कहना अधिक उचित है ।
मजा तो आ रहा है
मिट्टी का बड़ा और गहरा सा पात्र जिसे बोरसी कहते हैं ,सभी घरों में होता है । इसी बोरसी में लकड़ी , उपला (कंडा) ,धान की भूसी आदि जलाकर शरीर को गर्मी पहुंचाई जाती है ,जिससे कि जाड़ा, जोड़ों में न घुस पाये ।
आग दहक चुकी है
इसी आग में नया आलू भूनकर खाते रहिये और दुनियां भर की बातें करते रहिये । इस कउड़े का एक बड़ा और प्रचलित रूप भी है । आमतौर पर लोगों के घर के बाहर काफी जगह होती है जिसे दुआरा कहते हैं । इसी दुआरे पर एक छोटा सा गड्ढा खोदा जाता है , इसमें धान की भूसी,कंडा आदि से भर दिया जाता है , फिर उसके ऊपर किसी पेंड़ की मोटी जड़ का टुकड़ा जला दिया जाता है । ये जड़ बहुत देर तक जलता रहता है और लोगों की बातें भी अनवरत चलता रहता है ।इसमें तर्क-वितर्क ,सुख-दुख ,
एक दूसरे की खिंचाई और देश दुनिया की तमाम बातें होती हैं ।
कौन कहता है -मर्द चुगली नहीं करते ,कभी कउड़ा ताप कर तो देखिये ।
ये अम्मा-बाबूजी का चुपके से खींचा गया चित्र
तो ये था गांव के हीटर की कहानी अर्थात कउड़ा-कथा ।
(गठरी पर अजय कुमार )
23 comments:
बिहार में इस अलाव को घूरा भी कहते हैं. और हाँ राजनीति (लोकल, राष्ट्रीय से लेकर अंतर्राष्ट्रीय सभी) के बाद एबदे मुद्दे भी हल हो जाते हैं मिनट में.
देश से दूर रह कर वहाँ की याद दिला दी आपने. सुन्दर.
राजेश
गाँव का हीटर पहली बार सुना , बहुत interesting है। एक पंथ दो काज । हाथ सेंकिए और आलू खाइए।
गाँव की याद दिला दी आपने.. हीटर, एसी सब है यहाँ पर बोरसी वाला आनंद कहाँ... कभी अधबुझी बोरसी पर चूड़ा-दूध और गुड़ का कटोरा रख के खाए हैं कि नहीं? वो सोंधा स्वाद...
बहुत रोचक..गाँव के हीटर और वहाँ के जीवन का सुन्दर चित्रण ..
रोचक जानकारी ..
वाकई गांव की याद दिला दी, बस, फर्क इतना है कि हमारे गांव मे अलाव, अंगीठी के इर्द-गिर्द बैठ कर भट्ट (एक किस्म का पहाडी चना अथवा दाल) भून कर चबाते थे और घर, गांव के बडे- बुजुर्ग कहानी किस्से सुनाते !
बोरसी और घूरा के दिन भी अब फिरने लगे हैं। अच्छा लगा इसे पढकर।
बहुत रोचक ....
हमरे मगध में इसको बोरसी कहते हैं.. अऊर इसी का चर्चा हम एगो पोस्ट में किये थे.. सबसे जादा मज़ा तब आता था, जब आलू खाने के बाद पानी के लिये आवाज लगाते थे.. सब बच्चा इधर उधर ताकने लगता था.. जिसका नजर मिला उसको आग छोड़कर पानी लाने जाना पड़ेगा..
ई पोस्ट पढ़ने के बाद अपने आप गर्मी लगने लगा.. याद का गर्मी!!
बहुत ही सुन्दर एवं सचित्र प्रस्तुति के लिये आभार ।
कउड़ा को हम लोग भी कउड़ा ही कहते हैं, लेकिन बोरसी को यहां गोरसी कहते हैं।
इस लेख को पढ़कर यादों की गर्मी आने लगी।
वाह ... गाँव के हीटर ... साथ में भुने आलू .... चित्रों के साथ सुंदर वर्णन किया है आपने ...
आपके ब्लाग पर आ कर प्रसन्नता हुई। कई आलेखों का आस्वादन किया। भावपूर्ण लेखन के लिए बधाई।
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कल नेताजी सुभाषचंद बोस की जयन्ती थी उन्हें याद कर युवा शक्ति को प्रणाम करता हूँ। आज हम चरित्र-संकट के दौर से गुजर रहे हैं। कोई ऐसा जीवन्त नायक युवा-पीढ़ी के सामने नहीं है जिसके चरित्र का वे अनुकरण कर सकें?
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मुन्नियाँ देश की लक्ष्मीबाई बने,
डांस करके नशीला न बदनाम हों।
मुन्ना भाई करें ’बोस’ का अनुगमन-
देश-हित में प्रभावी ये पैगाम हों॥
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सद्भावी - डॉ० डंडा लखनवी
kauda katha dilchsp lagi ,jeene ke liye har raste par chalna padta hai ,fir wo gaon ho ya shahar .ati sundar tasvir .gantantra divas ki badhai ,jai hind .
रोचक जानकारी है हम यहाँ इस की बजाये रजाई मे गर्म पानी की बोतल रख कर गुजारा कर रहे हैं लाईट का कोई भरोसा नही होता। गाँव मुझे भी याद आ गया। ये यादों की गठरी बहुत दिनो बाद पढी असल मे ठंड और व्यस्ततायें रही। शुभकामनायें।
वाह । आपने तो बचपन की याद ताज़ा कर दी ।
गाँव की सर्दी में तो रिश्तो की गरमाहट थी, शहर की सर्दी मे तो तन्हाईयों की चुभन महसूस होती है ।
गाँव के हीटर से परिचित कराने के लिये धन्यवाद ।
wastav main gramin logon ka apna ek alag hi system hota hai, bahut achchi post......
abhaar.
आपके कमेन्ट से पता चला शादी की सालगिरह की तारीख । मेरे तरफ से आप दोनों कों ढेरों शुभकामनायें ।
सुन्दर चित्र हैं ।
अजय जी आपने बहुत सी यादें ताज़ा कर दी कोटि कोटि धन्यवाद
अजय जी,
बहुत दिनों बाद "कउड़ा" शब्द पढ़ने और सुनने को मिला। मजा आ गया।
बहुत ही सुन्दर और रोचक विवरण !
waah , alav aur tandoor ki baat hi kuch aur hai , bijli ki bhi bacaht hai
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