Wednesday, October 26, 2011

करे प्रकाशित अंतर्मन को-----(अजय की गठरी)

आज समाज में रावणों की संख्या बढ़ रही है , तरह तरह के रावण सामने आ रहे हैं । लगता है जैसे इनके दस नहीं असंख्य सिर हो गये हैं । ऐसे समय में दीपावली की महत्ता और विस्तार से तथा नये अर्थों में परिभाषित करने की जरूरत है ,जिससे आने वाली पीढ़ियां इससे लाभ उठा सकें ।
 आज दीपावली के शुभ अवसर पर सब के लिये शांति ,सुख ,संतुष्टि की मंगल कामना के साथ दो रचनाकारों की रचना प्रस्तुत है ,आशा है पसंद करेंगे आप सब ।

                मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम                                           

छोड़कर चल दिए रस्ते सभी फूलों वाले  , चुन लिए अपने लिए पथ भी बबूलों वाले 
उनके किरदार की अज़मत है निराली शाहिद,
दोस्त तो दोस्त, हैं दुश्मन भी उसूलों वाले
       
                    क़ुदरत का पैग़ाम

हमको क़ुदरत भी ये पैग़ाम दिए जाती है,जश्न मिल-जुल के मनाने का सबक लाती है|

अब तो त्यौहार भी तन्हा नहीं आते शाहिद ,साथ दीवाली भी अब ईद लिए आती है||

            रोशनी और ख़ुशबू                                                           
दीपमाला में मुसर्रत की खनक शामिल है,
दीप की लौ में खिले गुल की चमक शामिल है|  
जश्न में डूबी बहारों का ये तोहफ़ा शाहिद , 
जगमगाहट में भी फूलों की महक शामिल है                                            

           शुभ दीपावली

आओ अंधकार मिटाने का हुनर सीखें हम,कि वजूद अपना बनाने का हुनर सीखें हम
रोशनी और बढ़े, और उजाला फैले, दीप से दीप जलाने का हुनर सीखें हम
                                                       *********************************
                                                          रचनाकार-श्री शाहिद मिर्ज़ा शाहिद जी

                                                       **********************************
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना

अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।

नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल, उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।।
**********************************
रचनाकार- श्री गोपालदास "नीरज" जी
**********************************
और अंत में मेरी तरफ से शुभकामना सहित ये चंद पंक्तियां------

मिले प्रतिष्ठा ,यश ,समृद्धी ,जीवन में खुशहाली हो ।
करे प्रकाशित अन्तर्मन को ,ऐसी शुभ दीवाली हो ॥

********************************************************
आप सभी को सुंदर ,सुरक्षित एवं प्रदूषणमुक्त दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
                                          (गठरी पर अजय कुमार)
**********************************************************

 








Sunday, October 9, 2011

इजहार-ए-इश्क तुमसे क्यूं कर न सके हम (अजय की गठरी)

तुम बिन तुम्हारी याद में ,पीते हैं सदा गम ।
इजहार-ए-इश्क तुमसे ,क्यूं कर न सके हम ॥


जब हो न सके मुझको ,दीदार तुम्हारा ।
दिन भर तेरी तस्वीर का करते हैं नजारा ।
रातों को तेरी याद में , जलते हैं सदा हम ॥


आँखों से छलकते हैं तेरे ,जाम के प्याले ।
चेहरे की चमक से तेरे , फैले हैं उजाले ।
है ताज भी कुछ ऐसा ,यही सोचते हैं हम ॥


होंठों पे तबस्सुम है या , बिजली की चमक है ।
सांसें हैं या ,सावन के हवाओं की महक है ।
दिल चाहता है तुम पे , निसारूं कई जनम ॥


ज़ुल्फें बिखेर दी तो , घटा ऐसी छा गई ।
ये मन मयूर समझा कि , बरसात आ गई।
दिल नाचने लगा है , आ जाओ ऐ सनम ॥


तारों की कसम मैंने , तुम्हें प्यार किया है ।
मैंनें तो तुम्हें कत्ल का ,अधिकार दिया है ।
जां निकले तेरी बांह में , ये चाहते हैं हम ॥ 
***********************************
गठरी पर अजय कुमार
***********************************

Monday, September 19, 2011

दो साल की "गठरी" --और गुम हुई चवन्नी (अजय की गठरी)

                                            -५६-

आप सब के सहयोग और शुभकामनाओं के साथ आज १९ सितम्बर २०११ को यह ब्लाग तीसरे वर्ष में प्रवेश कर रहा है।आप सबका आभार प्रकट करता हूं तथा विश्वास दिलाता हूं कि  अच्छा लिखने का प्रयास करता रहुंगा ।
इस वर्ष हमारे देश से "चवन्नी" खत्म हो गयी । बाजार में तो पहले ही इसका चलन लगभग समाप्त हो चुका था,आधिकारिक घोषणा इस वर्ष हुई।आम जीवन का अहम हिस्सा थी "चवन्नी" , इससे जुड़ी बहुत सी यादें हैं ,कहावते हैं । कोई चवन्नी छाप था तो कोई चवन्नी कम और चवन्नी उछाल कर तो दिल भी मांगने का चलन था ।कोई मेहमान आया तो बच्चे पहाड़ा (Table), ककहरा(क ख ग घ),या फिर ABCD-- सुना कर चवन्नी हासिल कर लेते थे । चवन्नी का लालच दे कर कहा जाता था -सर दबा दो ,उंगली चटका दो--- आदि आदि ।  आज भी याद आ जाती है वो "चवन्नी भर मुस्कान" जिसमें सिर्फ होंठ फैलते हैं ,दंत पंक्तियां नहीं दिखतीं--------

मुझे देखकर के वो जब मुस्कुरायी ।
वो खोई चवन्नी बहुत याद आयी ॥

भाई-बहन में चवन्नी की अनबन ।
गुल्लक के अंदर चवन्नी की छनछन ।
भइया के पूरे बदन की घिसाई ॥ 

कभी मूंगफलियां कभी खाये केले ।
चवन्नी मिलाकर बहुत मैच खेले ।
चवन्नी की लइया भुना कर के खायी ॥

चवन्नी की खातिर बहुत बेले पापड़ ।
चवन्नी गुमा कर बहुत खाये झापड़ ।
पहाड़ा सुना कर चवन्नी कमाई ॥

चवन्नी का सेनुर चवन्नी की टिकुली।      (सेनुर=सिंदूर,टिकुली=बिंदी)
सजना के दिल पर हजारों की बिजली ।
चवन्नी उछाले बलम हरजाई ॥

नर लगता नारी ये कैसा सितम है ।
जिसके बदन में चवन्नी भर कम है।
हे भगवन चवन्नी कम क्यों लगाई ॥

चवन्नी में जादू ,चवन्नी में मेला ।
चवन्नी में देखा मदारी का खेला ।
चवन्नी हमारे दिलों में समायी ॥
 *******************************
गठरी पर अजय कुमार
*******************************




Sunday, August 28, 2011

फिर चाहत का घर टूटा है-----(अजय की गठरी)

                                 -५५-

दिन भर तेरी याद का आलम ,उलझन भी तन्हाई भी ।
उस पर ये पूनम की रातें ,सावन की पुरुवाई भी ॥

अब तो वक्त कटेगा मेरा ,उन आँखों की चाहत में ।
जिनमें है खंजर की ताकत ,झीलों की गहराई भी ॥

तुम बतलाओ क्या बोलूं मैं , करूं शुक्रिया या शिकवा ।
तुमसे मिलकर चैन भी आता , तुमने नींद उड़ाई भी ॥

कैसे तुमने दिल को लूटा , किसका किसका जिक्र करें ।
कातिल आँखें ,नागिन जुल्फें ,मस्त मस्त अंगड़ाई भी ॥

इश्क में दवा वही देता है , दर्द बढ़ाने वाला जो ।
जिसने आग लगाई तन में , उसने आग बुझाई भी ॥

मुझसे मिलने की खातिर तो ,था उसका बेताब भी दिल ।
हाथ छुआ तो , नजर झुकाकर , मुस्काई सकुचाई भी ॥

वक्त बदल जाता है पल में , वक्त को किसने बांधा है ।
वक्त को मुझसे प्यार आज है , कल होगी रुसवाई भी ॥

कोई यहां पर नहीं किसीका , फिर किसका एतबार करें ।
अंधकार में खो जाती है , ये अपनी परछांई भी ॥

जुदा हुए दो प्यार भरे दिल , कुछ ऐसे हालात हुए ।
मिला रहे थे नजरें जिनसे , उनसे नजर चुराई भी ॥

फिर चाहत का घर टूटा है , कहती हैं ये आवाजें ।
ठंडी आहें ,आँख के आंसू ,सिसकी भी शहनाई भी ॥

मिले बिछड़कर दो प्यासे दिल , लिपट लिपट कर यूं रोये ।
होंठ कांपता हुआ जनवरी , आँखें बनीं जुलाई भी ॥

Sunday, July 31, 2011

जिसने तेरी ज़ुल्फों में------(अजय की गठरी)

                        -५४-
जिसने तेरी ज़ुल्फों , में ये फूल लगाया है।
उसने तुम्हें चाहा है , दिल मेरा जलाया है॥

जी भर के मैंनें चूमा , जो फूल तुमने भेजा।
मैंनें तेरे तोहफे को , सीने से लगाया है॥

हर पूछने वाले से , इतना ही कहुंगा मैं।
मैंनें तुम्हें चाहा है , इस दिल में बसाया है॥

वो कभी हो नहीं सकता है , खुशी से पागल।
अदब से जिसने भी , गम को गले लगाया है॥

वो जिससे उम्र भर , जलते रहे , फरेब किया।
वो शख्स आज अब , मरने पे याद आया है॥

Sunday, July 17, 2011

जन्मदिन कैसे मनायें ???(अजय की गठरी)

है लहू से लाल धरती ,कैसे कोई गीत गायें ?
मन व्यथित व्याकुल ह्रदय है
जन्मदिन कैसे मनायें ?

जिन पे जिम्मेदारियां हैं ,वो बयानों में हैं उलझे ।
ध्यान मुद्दे से हटा है ,समस्या कैसे ये सुलझे ?
खत्म इनमें भावना है ,मिट गईं संवेदनायें ॥
मन व्यथित व्याकुल ह्रदय है,जन्मदिन कैसे मनायें ?

ये पकड़ में आये भी तो , इनके बाप का क्या जायेगा ?
देश के पैसों से इनका ध्यान रक्खा जायेगा ।
ठाट से जिंदा रहें ये , और हम मातम मनायें ॥
मन व्यथित ,व्याकुल ह्रद्य है ,जन्मदिन कैसे मनायें ?

जहर नफरत का है फैला , तुम नहीं इसमें उलझना ।
धर्म के उन्मादियों से , तुम सदा ही दूर रहना ॥
सफल और खुशहाल जीवन की बहुत शुभकामनायें ॥
प्रेम की गंगा बहायें , दिल किसी का ना दुखायें ।
जन्मदिन ऐसे मनायें,   जन्मदिन ऐसे  मनायें ॥

***************************************************
विगत १३ जुलाई को मुम्बई में आतंकी घटना हुई ,तमाम जिम्मेदार नेताओं ने गैरजिम्मेदाराना बयान दिये, मीडिया में मुम्बई के स्पिरिट (????) की तारीफ हुई ।
आज १७ जुलाई को मेरे बेटे आयुष का जन्मदिन है , इस समय जो विचार आये ,आपके सामने है ।



हम आयुष के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए ,सर्वशक्तिमान ईश्वर से प्रार्थना करते हैं  कि आने वाली पीढ़ी को सुंदर समाज मिले ।
*******अजय कुमार एवं नलिनी श्रीवास्तव(पापा-मम्मी)*************

Saturday, July 2, 2011

५२-मेरा दिल ले गई है वो-----(अजय की गठरी)

                  -५२-

ये कैसा दौर आया है , हुआ फैशन से कन्फ्युजन ।
जिसे हम नर समझते थे , असल में वो तो मादा है ॥

मुहल्ले की हसीना है , वो जिसकी आज है शादी ।
झूमकर मैने भी नाचा , मगर अफसोस ज्यादा है ॥

ये मेकअप में छुपे चेहरे , मुझे कुछ कुछ नहीं होता ।
मेरा दिल ले गई है वो ,कि जिसका रूप सादा है ॥

सामने पत्नियों के , सारे पतियों की हवा निकली ।
जो खुद को शेर कहता है , वही खरगोश ज्यादा है ॥

कुंवारे थे तो अच्छा था , डिसीजन खुद ही लेता था ।
मेरा घर अब व्यवस्थित है , मगर सरदर्द ज्यादा है ॥

घर में सुख-चैन से रहना , कोई जादू नहीं होता ।
वही सब होते रहने दो , जो पत्नी का इरादा है ॥

लगाई आग इस घर में , इसी घर के कसाबों ने ।
अरे जयचंद को पकड़ो , ये तो बस एक प्यादा है ॥

इलेक्शन का टिकट पक्का है मेरा , कटेगा कैसे ?
गुनाहों से भरा दामन , शराफत का लबादा है ॥

Sunday, June 19, 2011

गांव गया था ,गांव देखने ----(अजय की गठरी)

गांव गया था ,गांव देखने
पहले जैसा गांव नहीं है ।
बौने आम के बाग लगे हैं
पहले जैसा छांव नहीं है ॥

मन फ्लैशबैक में जाने लगा ।
बहुत कुछ याद आने लगा ॥

हम बचपन में जब गांव जाते थे ।
दिन भर शैतानी करते थे , ऊधम मचाते थे।
अपने ही पेड़ का फल ,चुरा कर खाते थे ।
डांट से बचने के लिये ,दादी के पास छुप जाते थे ॥

हमारे सर पर हाथ फेरती दादी
पिताजी को डांटती दादी
सब कुछ बहुत याद आया
उन हाथों का स्पर्श
जैसे पीपल की स्नेहिल छाया ॥

अब दादी नहीं हैं , पीपल है ।
उसकी छांव आज भी स्नेहिल है शीतल है ॥

पूरे कुटुम्ब पर बाबा का साया
बरगद जैसा मजबूत और विस्त्रित ।
उनका रोब , रुतबा अभी भी
मन में है चित्रित ॥

समयचक्र चलता रहा
बरगद एक दिन कट गया ।
अब बाबा नही हैं
सबका रुतबा भी घट गया ॥

चलता रहा यादों का अनवरत सिलसिला ।
गांव से शहर जाता एक रास्ता मिला ॥

मन घबराने लगा ।
बहुत कुछ याद आने लगा ॥

लोग गांव से शहर जाते हैं ,सुख की तलाश में ।
और फंस जाते हैं ,न खत्म होने वाले वनवास में ॥
हांड़-तोड़ मेहनत करके फुटपाथ पर सोते हैं ।
बीबी ,बच्चों को याद करके रोते हैं ॥
"कुछ पैसों का जुगाड़ होते ही वापस जाउंगा
 कोई धंधा करुंगा ,वापस नहीं आउंगा ॥"
बस ऐसे ही मन को बहलाते हैं ।
अपने देश में ही परदेशी कहलाते हैं ॥

शहर के बिना गांव का काम चल जायेगा ।
गांव के बिना शहर भूखा मर जायेगा ॥
इसीलिये कहता हूं
कि गांव को शहर मत ले जाओ ।
शहर जैसी सुविधा ,गांव में भी लाओ ॥

अगर होने लगे सबका यहां पर गुजर-बसर ।
तो कोई क्यों जायेगा ,किसी शहर ॥

************************************************
गठरी पर अजय कुमार
************************************************








Sunday, May 15, 2011

मेरी पचासवीं पोस्ट,तेरा चेहरा---मेरी चिंता(अजय की गठरी)

                       तेरा चेहरा
                   
तेरा चंदा जैसा चेहरा ,आते जाते लोग न देखें ।
तेरी आँखों में मस्ती है ।
इसमें छबि मेरी बसती है ।
आँखों से दिल को लूटे तूं
आँखों से बातें करती है ॥
इन आँखों का राज ये गहरा ,आते जाते लोग न देखें ॥

तुम बिन सावन सूना मेरा ।
बिन प्रियतम मन लगे ना मेरा ।
उड़े हवायें जुल्फ़ें छूकर ।
जुल्फ़ों में मन भटका मेरा ॥
इन जुल्फ़ों का रंग सुनहरा ,आते जाते लोग न देखें ॥

इस चेहरे को यूं न झुकाओ ।
अपना समझो मत शरमाओ ।
तोड़ के दुनिया की रस्मों को ।
मेरी बाहों में आ जाओ ॥
चेहरे पर ये तिल का पहरा ,आते जाते लोग न देखें ॥
************************************************
यह मेरी पचासवीं पोस्ट है , हौसला बढ़ाने के लिये सभी का शुक्रिया ।

************************************************
गठरी पर अजय कुमार

Saturday, March 19, 2011

अरे ई होली का है सुरूर----(अजय की गठरी)


अरे ई होली का है सुरूर ।
खा के भांग,नशे में चूर ॥

मनमोहन की बात बतायें ।
मैडम ,मैडम जी मिमयायें ।
होता है नित नया घोटाला
एड़ा बनकर पेड़ा खायें ।
हाथ में एतना ताकत
फिर भी बनते हैं मजबूर ॥
अरे ई होली का है सुरूर ----------

मंहगाई का दानव आया ।
मंत्री ने कारण बतलाया ।
"देश के सभी गरीबों ने भी
जब से अन्न खरीदा खाया ।"
कैटिल क्लास है जनता
ई ट्विटियाये शशि थरूर ॥
अरे ई होली का है सुरूर-----------

आय हाय मोरे ए राजा ।
टू जी ने बजवाया बाजा ।
तभी पकड़ में आये बच्चू
मीडिया ने जब डंडा भांजा ।
संसद से तिहाड़ में आकर
कैसा लगा हुजूर ॥
अरे ई होली का है सुरूर-------

अपनी मांगें यूं मनवाओ ।
ट्रेन रोक दो ,बस को जलाओ ।
बिगड़ेगा कुछ नहीं तुम्हारा
सम्मानित नेता कहलाओ ।
लोकतंत्र में वोट के आगे
शासन है मजबूर ॥
अरे ई होली का है सुरूर------
*********************************
सुरक्षित , शांतिपूर्ण और प्यार तथा उमंग में डूबी हुई होली की सतरंगी शुभकामनायें ।

अजय कुमार

Monday, February 21, 2011

लिखना तो बहुत कुछ है----( अजय की गठरी )

आँखों को कमल ,ज़ुल्फ़ को नागिन या लता लिख दूं ?
लिखना तो बहुत कुछ है , क्या बात बता लिख दूं ?

कहने को हजारों हैं .बातें तो मुहब्बत में ।
कैसे करूं शुरू मैं ,क्या लिखना है इस खत में॥
वो बात सोचता हूं ,बेचैन सी हालत में ।
अब दूर से न इतना , तूं प्यार जता लिख दूं ॥
लिखना तो बहुत कुछ है , क्या बात बता लिख दूं ?

मेरा तो इस जहां में , कोई नहीं ठिकाना ।
कब तक कहां रहुंगा , मुश्किल है बता पाना ॥
कपड़े की तरह मैनें ,बदला है आशियाना ।
किस गली ,किस शहर का ,किस घर का पता लिख दूं ?
लिखना तो बहुत कुछ है ,क्या बात बता लिख दूं ?

जब नींद नहीं आये , यादों में समाती हो ।
कुछ पल जो नींद आये ,ख्वाबों में सताती हो ॥
मेरी जिंदगी में कैसे हालात बनाती हो ?
आ आ के खयालो में ,ऐसे ही सता लिख दूं  ॥
लिखना तो बहुत कुछ है ,क्या बात बता लिख दूं ?

वो दिन नही हूं भूला , जब हां कहा था तुमने ।
हमने सजा लिये थे , ना जाने क्या क्या सपने ॥
जो बीच में खड़े थे ,वो थे हमारे अपने ।
किसको बनाऊं मुजरिम , है किसकी खता लिख दूं ?
लिखना तो बहुत कुछ है ,क्या बात बता लिख दूं ?

Sunday, January 23, 2011

कड़ाके की सर्दी और गाँव का हीटर (अजय की गठरी)

                                                       कउड़ा-कथा    
        
सर्दी जब अपने शबाब पर होती है तो अच्छे अच्छे फैशन परस्त लोग पूरे कपड़े में नजर आते हैं । इसी समय मैं सिद्धार्थनगर गया था । बस्ती से सिद्धार्थनगर बस से यात्रा के दौरान आसपास कुहरा छाया था ।



                                             ड्राइवर साब ,जरा संभल के

सुबह का ये सफर बड़ा अच्छा था , मुंह खोलने पर भाप का निकलना बचपन का खेल याद आ गया । हम अपने उंगलियों में स्टाइल से कागज का सिगरेट बना कर कश लगाते और मुंह से भाप निकालते ।
धूप में छत पर लेटना ,तेल और बुकवा (सरसो का पेस्ट सरसो के तेल में मिला हुआ) की मालिश ,सरसो , बथुवा ,चना और मटर का साग सब याद आया ।
सुबह शाम गांव में आग तापने की व्यवस्था होती है ,जिसे कउड़ा या अलाव कहते हैं । कउड़ा को गांव का हीटर कहना अधिक उचित है ।

                                               मजा तो आ रहा है

मिट्टी का बड़ा और गहरा सा पात्र जिसे बोरसी कहते हैं ,सभी घरों में होता है । इसी बोरसी में लकड़ी , उपला (कंडा) ,धान की भूसी आदि जलाकर शरीर को गर्मी पहुंचाई जाती है ,जिससे कि जाड़ा, जोड़ों में न घुस पाये ।


                                               आग दहक चुकी है

इसी आग में नया आलू भूनकर खाते रहिये और दुनियां भर की बातें करते रहिये । इस कउड़े का एक बड़ा और प्रचलित रूप भी है । आमतौर पर लोगों के घर के बाहर काफी जगह होती है जिसे दुआरा कहते हैं । इसी दुआरे पर एक छोटा सा गड्ढा खोदा जाता है , इसमें धान की भूसी,कंडा आदि से भर दिया जाता है , फिर उसके ऊपर किसी पेंड़ की मोटी जड़ का टुकड़ा जला दिया जाता है । ये जड़ बहुत देर तक जलता रहता है और लोगों की बातें भी अनवरत चलता रहता है ।इसमें तर्क-वितर्क ,सुख-दुख ,
एक दूसरे की खिंचाई और देश दुनिया की तमाम बातें होती हैं ।
कौन कहता है -मर्द चुगली नहीं करते ,कभी कउड़ा ताप कर तो देखिये ।




                                          ये अम्मा-बाबूजी का चुपके से खींचा गया चित्र

तो ये था गांव के हीटर की कहानी अर्थात कउड़ा-कथा ।
(गठरी पर अजय कुमार )

Saturday, January 8, 2011

खुदा आकर के खुद पूंछे ???? (अजय की गठरी )

हांड़ तोड़ सर्दी------

                                                    कड़क सर्दी के मौसम में,

                                                    बदन अपना कंपा इतना ,




                                         खुदा आकर के ख़ुद पूंछे,
                                         रजाई- गद्दा भेजूं क्या ?

                              *************
सर्दी मुबारक
अजय कुमार (गठरी पर )

नोट- पूर्व में ’सस्ते शेर ’ब्लाग पर प्रकाशित हो चुका है , फिर से झेलिये ।

Monday, January 3, 2011

सूचना एवं संचार तकनीक से महरूम रेलवे ??(अजय की गठरी)

सबसे पहले तो आप सभी को नये वर्ष की शुभकामनायें । अभी कुछ दिनों के लिये लखनऊ और सिद्धार्थनगर गया था ,कल शाम को लौटा हूं । गुर्जर आन्दोलन की क्रिपा से हमारी ट्रेन (अवध एक्सप्रेस) सिर्फ ३२ घंटा लेट हुई ।
अब आते हैं असली मुद्दे पर । संचार क्रांति के इस दौर में भी रेलवे अभी भी पूर्ण सूचना देने में बेबस और लाचार दिखने की कोशिश करता है। जरा निम्न बातों पर भी गौर करें-
१-ट्रेन लेट होने की जानकारी टुकड़ों में दी जाती है
२-ट्रेन किस स्टेशन पर है ,वहां क्यों रुकी है नहीं बताया जाता
३-ट्रेन अपने मूल स्टेशन से चल चुकी है या नहीं

 इन बातों के अलावा सेवा की कमी तो हद से बढ़कर है -
१-जनरल के असंख्य टिकट बेचते हैं
२-जनरल के यात्री पैसा देकर टिकट लेते हैं ,फिर पुलिस तथा कुली को पैसा देकर सीट का जुगाड़ करते हैं ,कभी कभी डंडा भी खाते हैं
३-एसी के यात्री पैसा ज्यादा देते हैं लेकिन कोई अतिरिक्त सुविधा नहीं, यदि प्लेन कैंसिल अथवा बहुत लेट हो तो संबंधित एयरलाइंस उनका ख्याल रखने की पूरी कोशिश करते हैं ,रेलवे में ऐसा नहीं है ।
३-हम एसी वेटिंग रूम में थे ,लेकिन उसका टायलेट सार्वजनिक था ,कोई पूछताछ नहीं ।

अब ट्रेन के अंदर की बात -
१-ट्रेन के स्टाफ को ही नहीं पता था कि परिवर्तित रूट क्या है ,अगला स्टेशन कौन सा है ???
२-ट्रेन अचानक क्यों रुकी है
३-क्या ट्रेन में उद्घोषणा नही की जानी चाहिये

और अंत मे मजेदार बात यह है कि रेलवे को तो कुछ नहीं पता था ,लेकिन बहुत से यात्रियों को इनमें से ज्यादातर जानकारी अपने मोबाइल के माध्यम से पता थीं ।
एक बार फिर से आप सब को नये वर्ष में स्वस्थ और सुंदर जीवन की मंगलकामनायें ।
*************************
अजय कुमार
*************************