जब गुंडे पाँव पकडें , नेताजी मुस्कुराये |
जनता समझ गयी है , फिर से चुनाव आये ||
बंटने लगी है दारु मिलने लगा है पैसा |
कन्फ्यूज हुआ वोटर , किसका बटन दबाये ?
जी भर के दे रहे हैं , एक दूसरे को गाली |
मुंह है या गन्दी नाली , कोई समझ न पाये ||
सबको मिलेगा मौका , सबका विकास होगा |
ये कहने वाले अब तो , अपना ही बुत बनाये ||
है वोट की जरूरत , तो द्वार पे खड़े हैं |
अगले चुनाव तक फिर , शायद नजर ये आये ||
सत्ता के लिए अपने, सिद्धांत बेच डाले |
कोई किसी के गोदी में जा के बैठ जाए ||
भारत के बन रहे हैं , अब वो ही कर्ता-धर्ता |
भारत का नक्शा जिनके बिलकुल समझ न आये ||
145. लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
17 hours ago
13 comments:
बहुत अच्छे !
आपकी रचना को पढ़ कर एक बहुत पुराना गीत याद आ गया....जिसकी कुछ पंक्तियाँ :
रहने को घर नहीं है हिन्दोस्तां हमारा!
दिल्ली में दीखता है जंगल की ही नज़ारा !!
man ki soch ko kalam tak pahuchan
yah kam logo ko aataa hai ,yah gud
aap ko hai
जब गुंडे पाँव पकडें , नेताजी मुस्कुराये |
जनता समझ गयी है , फिर से चुनाव आये ||
बंटने लगी है दारु मिलने लगा है पैसा |
कन्फ्यूज हुआ वोटर , किसका बटन दबाये ?
बहुत सुंदर....स्वागत है आपका .....!!
waah,bahut sahi vyangya
बेहतरीन -- सही है
बहुत उम्दा रचना।
सटीक व्यंग्य........बहुत बधाई....
बात में सच्चाई है.
बढिया है ।
sahi naksha kheencha hai aapne halaton ka.bhaut khoob.
dhanyavad ,blog jagat men swagat ka .vyangya wo hai jo hansaye par kisi ka dil na dukhaye,aur aap ki rachna aisi hi hai.
बहुत खूब!
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