Friday, October 9, 2009

दिन-दहाड़े

जब गुंडे पाँव पकडें , नेताजी मुस्कुराये |
जनता समझ गयी है , फिर से चुनाव आये ||
बंटने लगी है दारु मिलने लगा है पैसा |
कन्फ्यूज हुआ वोटर , किसका बटन दबाये ?
जी भर के दे रहे हैं , एक दूसरे को गाली |
मुंह है या गन्दी नाली , कोई समझ न पाये ||
सबको मिलेगा मौका , सबका विकास होगा |
ये कहने वाले अब तो , अपना ही बुत बनाये ||
है वोट की जरूरत , तो द्वार पे खड़े हैं |
अगले चुनाव तक फिर , शायद नजर ये आये ||
सत्ता के लिए अपने, सिद्धांत बेच डाले |
कोई किसी के गोदी में जा के बैठ जाए ||
भारत के बन रहे हैं , अब वो ही कर्ता-धर्ता |
भारत का नक्शा जिनके बिलकुल समझ न आये ||

13 comments:

BAD FAITH said...

बहुत अच्छे !

VIMAL VERMA said...

आपकी रचना को पढ़ कर एक बहुत पुराना गीत याद आ गया....जिसकी कुछ पंक्तियाँ :
रहने को घर नहीं है हिन्दोस्तां हमारा!
दिल्ली में दीखता है जंगल की ही नज़ारा !!

भंगार said...

man ki soch ko kalam tak pahuchan
yah kam logo ko aataa hai ,yah gud
aap ko hai

हरकीरत ' हीर' said...

जब गुंडे पाँव पकडें , नेताजी मुस्कुराये |
जनता समझ गयी है , फिर से चुनाव आये ||
बंटने लगी है दारु मिलने लगा है पैसा |
कन्फ्यूज हुआ वोटर , किसका बटन दबाये ?

बहुत सुंदर....स्वागत है आपका .....!!

रश्मि प्रभा... said...

waah,bahut sahi vyangya

M VERMA said...

बेहतरीन -- सही है

बवाल said...

बहुत उम्दा रचना।

surendra joshi said...

सटीक व्‍यंग्‍य........बहुत बधाई....

डॉ टी एस दराल said...

बात में सच्चाई है.

अर्कजेश said...

बढिया है ।

shikha varshney said...

sahi naksha kheencha hai aapne halaton ka.bhaut khoob.

इस्मत ज़ैदी said...

dhanyavad ,blog jagat men swagat ka .vyangya wo hai jo hansaye par kisi ka dil na dukhaye,aur aap ki rachna aisi hi hai.

महेंद्र मिश्र said...

बहुत खूब!