Sunday, September 8, 2013

सोचता हूँ कि तुम्हें ,प्यार इतना न करूं (अजय की गठरी )

                 ( ६७  )
सोचता हूँ कि तुम्हें ,प्यार इतना न करूं |
छुपके देखा न करूं ,फूल से मारा न करूं ||
अदाएं हुश्न की , तेरी हैं ,इस कदर कातिल
कि मैंने सोच लिया , वक्त को जाया न करूं ||

मैंने सोचा कि तुम्हें प्यार से देखूं न कभी |
कोई  तस्वीर तेरी , पास में रक्खूं न कभी |
अपने हाथों से तेरे जुल्फ ,संवारा न करूं ||

तुम जो आओ तो , किसी काम में मसरूफ रहूँ |
तुमसे जाने को कहूं ,और अकेला ही रहूँ |
देखकर तुमको कभी ,आह ठंडी न भरूं ||

तुमको देखा तो लगा ,वक्त कटेगा अब तो |
ये न सोचा कि कोई,तंग करेगा मुझको |
कितना चाहा कि तुम्हें ,प्यार से देखा न करूं ||

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गठरी पर अजय कुमार
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4 comments:

Anonymous said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. हिंदी लेखक मंच पर आप को सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपके लिए यह हिंदी लेखक मंच तैयार है। हम आपका सह्य दिल से स्वागत करते है। कृपया आप भी पधारें, आपका योगदान हमारे लिए "अमोल" होगा | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा |

मैं रह गया अकेला ..... - हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल - अंकः003

दिगम्बर नासवा said...

प्रेम में किसी के चाने से कुछ नहीं होता ... ये मर्ज अपने आप लग जाता है ...

राजीव कुमार झा said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" में शामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 12/09/2013 को क्या बतलाऊँ अपना परिचय - हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल - अंकः004 पर लिंक की गयी है ,
ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें. कृपया आप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा

कालीपद "प्रसाद" said...

प्यार तो अनचाहे हो जाता है बहुत अच्छी रचना
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