Sunday, June 19, 2011

गांव गया था ,गांव देखने ----(अजय की गठरी)

गांव गया था ,गांव देखने
पहले जैसा गांव नहीं है ।
बौने आम के बाग लगे हैं
पहले जैसा छांव नहीं है ॥

मन फ्लैशबैक में जाने लगा ।
बहुत कुछ याद आने लगा ॥

हम बचपन में जब गांव जाते थे ।
दिन भर शैतानी करते थे , ऊधम मचाते थे।
अपने ही पेड़ का फल ,चुरा कर खाते थे ।
डांट से बचने के लिये ,दादी के पास छुप जाते थे ॥

हमारे सर पर हाथ फेरती दादी
पिताजी को डांटती दादी
सब कुछ बहुत याद आया
उन हाथों का स्पर्श
जैसे पीपल की स्नेहिल छाया ॥

अब दादी नहीं हैं , पीपल है ।
उसकी छांव आज भी स्नेहिल है शीतल है ॥

पूरे कुटुम्ब पर बाबा का साया
बरगद जैसा मजबूत और विस्त्रित ।
उनका रोब , रुतबा अभी भी
मन में है चित्रित ॥

समयचक्र चलता रहा
बरगद एक दिन कट गया ।
अब बाबा नही हैं
सबका रुतबा भी घट गया ॥

चलता रहा यादों का अनवरत सिलसिला ।
गांव से शहर जाता एक रास्ता मिला ॥

मन घबराने लगा ।
बहुत कुछ याद आने लगा ॥

लोग गांव से शहर जाते हैं ,सुख की तलाश में ।
और फंस जाते हैं ,न खत्म होने वाले वनवास में ॥
हांड़-तोड़ मेहनत करके फुटपाथ पर सोते हैं ।
बीबी ,बच्चों को याद करके रोते हैं ॥
"कुछ पैसों का जुगाड़ होते ही वापस जाउंगा
 कोई धंधा करुंगा ,वापस नहीं आउंगा ॥"
बस ऐसे ही मन को बहलाते हैं ।
अपने देश में ही परदेशी कहलाते हैं ॥

शहर के बिना गांव का काम चल जायेगा ।
गांव के बिना शहर भूखा मर जायेगा ॥
इसीलिये कहता हूं
कि गांव को शहर मत ले जाओ ।
शहर जैसी सुविधा ,गांव में भी लाओ ॥

अगर होने लगे सबका यहां पर गुजर-बसर ।
तो कोई क्यों जायेगा ,किसी शहर ॥

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गठरी पर अजय कुमार
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