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वर्षो पहले शायद छठी या सातवीं कक्षा में था ,एक किताब पढ़ी थी -लोहा सिंह | भोजपुरी भाषा में लिखित पुस्तक के लेखक थे श्री रामेश्वर सिंह कश्यप | बहुत दिनों से इस पुस्तक की तलाश कर रहा हूँ लेकिन असफल ही रहा |यु ट्यूब पर दो वृत्तांत ही मिले , नेट पर भी इक्का दुक्का स्थानों पर थोड़ा जिक्र मिला ,उन्हीं थोड़ी बहुत प्राप्त सूचनाओ और यादों के सहारे कुछ लिखने की कोशिश की है |
लोहा सिंह जो की एक रिटायर्ड फौजी है ,अपनी पत्नी को खदेरन की माई कह कर सम्बोधित करता है , एक पाठक जी हैं जिन्हें फाटक बाबा कहा जाता है | फाटक बाबा घर में प्रवेश करते समय -जय हो जजमान का उद्घोष करते हैं और लोहा सिंह से मित्रवत सम्बन्ध रखते हैं |खदेरन , लोहा सिंह का पुत्र है ,और खदेरन के मामा हैं बुलाकी | लोहा सिंह कभी कभी खदेरन की माई को , खदेरन का मदर कहकर पुकारते हैं |
खदेरन की माई का तकिया कलाम है . अ--मार बढ़नी रे -----
लोहा सिंह अपनी बातचीत में अक्सर 'काबुल का मोर्चा पर ' का जुमला जोड़ते रहते हैं |
किसी प्रसंग के समाप्त होने पर , फाटक बाबा ,लोहा सिंह से मुखातिब होकर अवश्य कहते हैं -" को नहिं जानत है जग में , संकट मोचन नाम तिहारो "
इसी पुस्तक से कुछ प्रसंग----
1- खदेरन के मदर ,जानत बाड़ू ,मेहरारू के मोंछ काहे ना होला- आवर मरद के कपार के बार काहे झर जाला ,
ता सुन,- मेहरारू लोग जबान से काम लेला ,एहसे मोंछ झर जाला। अउर मरद लोग , दिमाग से काम लेला ,एहसे कपार के बार झर जाला
2-लोहा सिंह , खदेरन की माई से कहते हैं -
" तुम हुकुम देता है जैसे फौज का सरजंट है , ये नहीँ बूझा के हम लफ़्टंट का लफ़्टंट है
मेम , मेमिन तुम नहीँ , तुम है जनानी गांव की ,हो के मेहरारू भला क्यों मर्द से रपटंट है |
कुछ रचनाएँ धरोहर होती हैं और इन्हें आनेवाली पीढ़ियों तक पहुंचते रहना चाहिए |मेरे पास इसकी कुछ धुंधली सी याद ही है | समस्त साहित्य प्रेमियों को यह सहज रूप से उपलब्ध हो इसलिए मेरा निवेदन इस ब्लॉग के माध्यम से है कि, लोहा सिंह नाटक , पुस्तक अथवा रिकॉर्डिंग , कहाँ से और कैसे प्राप्त हो सकती है , ऐसी जानकारी किसी के पास है तो साझा करने का कष्ट करें |
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गठरी पर अजय कुमार
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वर्षो पहले शायद छठी या सातवीं कक्षा में था ,एक किताब पढ़ी थी -लोहा सिंह | भोजपुरी भाषा में लिखित पुस्तक के लेखक थे श्री रामेश्वर सिंह कश्यप | बहुत दिनों से इस पुस्तक की तलाश कर रहा हूँ लेकिन असफल ही रहा |यु ट्यूब पर दो वृत्तांत ही मिले , नेट पर भी इक्का दुक्का स्थानों पर थोड़ा जिक्र मिला ,उन्हीं थोड़ी बहुत प्राप्त सूचनाओ और यादों के सहारे कुछ लिखने की कोशिश की है |
लोहा सिंह जो की एक रिटायर्ड फौजी है ,अपनी पत्नी को खदेरन की माई कह कर सम्बोधित करता है , एक पाठक जी हैं जिन्हें फाटक बाबा कहा जाता है | फाटक बाबा घर में प्रवेश करते समय -जय हो जजमान का उद्घोष करते हैं और लोहा सिंह से मित्रवत सम्बन्ध रखते हैं |खदेरन , लोहा सिंह का पुत्र है ,और खदेरन के मामा हैं बुलाकी | लोहा सिंह कभी कभी खदेरन की माई को , खदेरन का मदर कहकर पुकारते हैं |
खदेरन की माई का तकिया कलाम है . अ--मार बढ़नी रे -----
लोहा सिंह अपनी बातचीत में अक्सर 'काबुल का मोर्चा पर ' का जुमला जोड़ते रहते हैं |
किसी प्रसंग के समाप्त होने पर , फाटक बाबा ,लोहा सिंह से मुखातिब होकर अवश्य कहते हैं -" को नहिं जानत है जग में , संकट मोचन नाम तिहारो "
इसी पुस्तक से कुछ प्रसंग----
1- खदेरन के मदर ,जानत बाड़ू ,मेहरारू के मोंछ काहे ना होला- आवर मरद के कपार के बार काहे झर जाला ,
ता सुन,- मेहरारू लोग जबान से काम लेला ,एहसे मोंछ झर जाला। अउर मरद लोग , दिमाग से काम लेला ,एहसे कपार के बार झर जाला
2-लोहा सिंह , खदेरन की माई से कहते हैं -
" तुम हुकुम देता है जैसे फौज का सरजंट है , ये नहीँ बूझा के हम लफ़्टंट का लफ़्टंट है
मेम , मेमिन तुम नहीँ , तुम है जनानी गांव की ,हो के मेहरारू भला क्यों मर्द से रपटंट है |
कुछ रचनाएँ धरोहर होती हैं और इन्हें आनेवाली पीढ़ियों तक पहुंचते रहना चाहिए |मेरे पास इसकी कुछ धुंधली सी याद ही है | समस्त साहित्य प्रेमियों को यह सहज रूप से उपलब्ध हो इसलिए मेरा निवेदन इस ब्लॉग के माध्यम से है कि, लोहा सिंह नाटक , पुस्तक अथवा रिकॉर्डिंग , कहाँ से और कैसे प्राप्त हो सकती है , ऐसी जानकारी किसी के पास है तो साझा करने का कष्ट करें |
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